लेखक: समाजवादी चिंतक जयंत बहिदार
मो. 8770014021
डॉ. भीमराव अंबेडकर साहब ने बार-बार दलितों, आदिवासियों, मज़दूरों, किसानों, युवाओं, महिलाओं, पिछड़ों और गरीबों को अपनी बदहाली और गुलामी से बाहर निकलने का स्पष्ट संदेश दिया—
“शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो।”
लेकिन सवाल यह है—क्या हमने उनकी बात मानी?
दुर्भाग्य से, नहीं।
आज हालात यह हैं—
सत्ता के लालच में सब फँस गए।
न सही मायनों में शिक्षित हुए।
न संगठित हो पाए।
न ही वास्तविक संघर्ष किया।
शिक्षा का असली अर्थ भुला दिया
शिक्षा का अर्थ केवल नौकरी पाना नहीं है।
आज गरीब आदमी बी.ए., एम.ए. तक की पढ़ाई तो कर लेता है, लेकिन अपने घर-परिवार और समाज की गरीबी दूर नहीं कर पाता।
सन 1947 में जितने गरीब लोग हमारे देश में थे, आज उनकी संख्या पाँच गुना बढ़ गई है।
अगर आप ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट हैं, तो आपको सोचना होगा—
समाज का भला कैसे होगा?
अपनी जाति, विशेषकर आदिवासी और दलितों का उत्थान कैसे होगा?
तभी शिक्षा का असली लाभ समाज को मिलेगा।
संगठन का मतलब सिर्फ़ चुनाव नहीं
आज हमारे देश में “संगठित” होने का मतलब केवल चुनाव जीतना रह गया है—
सत्ता हासिल करने के लिए, राजनीति करने के लिए।
लेकिन इससे लूट, शोषण, भ्रष्टाचार, हिंसा और गरीबी खत्म नहीं होगी।
राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए कॉरपोरेट कंपनियों और धनपतियों से चंदा लेते हैं, और इसके बदले—
अपने समाज, जाति, स्वाभिमान और जमीर को गिरवी रख देते हैं।
बाबा साहब के संघर्ष को बेच देते हैं।
गांव, जल, जंगल, जमीन का संकट
अब सवाल है—ऐसे में गांव, जल, जंगल, जमीन, नदियाँ-नाले कैसे बचेंगे?
दिखावटी वृक्षारोपण से पर्यावरण नहीं बचेगा, उसके लिए असली जंगल बचाने होंगे।
आज राजनीतिक दल सिर्फ़ चुनाव जीतने में लगे हैं।
विश्व आदिवासी दिवस, डॉ. अंबेडकर जयंती या गुरु घासीदास जयंती—इन अवसरों पर जलूस निकालना, मिठाई बाँटना—बस यहीं तक सीमित रह गया है। इससे समाज का असली भला नहीं होगा।
अब जागो, सवाल पूछो
आदिवासी और दलित भाइयों-बहनों,
सत्ता और कॉरपोरेट लूट का सबसे ज़्यादा असर आप पर हो रहा है।
आपका ही शोषण हो रहा है, और आप चुप हैं।
अब अपने—
पंच,
प्रधान,
चुने हुए नेता,
विधायक,
सांसद,
मंत्री,
और सरकारी अधिकारियों—से सवाल करो:
“तुम समाज के लिए क्या कर रहे हो?”
संघर्ष का आह्वान
गरीबों, दलितों और आदिवासियों—
सड़कों पर उतरो, आंदोलन करो, अपनी रक्षा के लिए।
वरना इस देश में आपका अस्तित्व और नामोनिशान मिट जाएगा—
जैसे ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के मूल निवासी लगभग समाप्त हो गए।